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एक बार आजा

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 *एक बार आजा* संतप्त ह्रदय तेरे विरह वेदना में जल रहा चंचल नयन तेरे इंतज़ार में सुप्त हो रहा तुम निर्मोही इस कदर रूठे कि मनाने की सारे रास्ते बंद कर गए लोग कहते हैं ना देखूं तेरा रास्ता तुम अनजाने रास्तों में खो गए  पर मेरे ह्रदय को कैसे समझाऊं,जो हर पल धड़कता तेरे आने की आस लिए दुनिया मे कई चमत्कार हैं होते एक चमत्कार होता और हम-तुम साथ होते सपनो के पंख लगा ढूंढती हूं हरजगह  पर जाने तुम किस ओट में हो छुपे हुए एक बार आजा मुस्कराते हुए छुपा लुंगी,सबकी नजरों से बचाते हुए श्रीमती मुक्ता सिंह रंकाराज 22/3/23

छोड़ गए निर्मोही बनकर

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 छोड़ गए निर्मोही बनकर लोग समझते हैं  मैं सम्भल गयी हूं दुनियादारी में रम गयी हूं पर उन्हें क्या पता ये तो मेरे कर्तव्य पथ के बिखरे मोती हैं जिन्हें मैं पिरोती हूं  चेहरे पे झूठी मुस्कान लिए पर मेरा दिल आज भी ठहरा है उसी बन्द दरवाजे के पीछे जहां छोड़ गए तुम  निर्मोही बन कर। बहुत मनाती हूं दिल को समझाती हूं तेरा अक्स ढूंढती फिरती हूं प्यार लुटा बनाना चाहती हूं अपना पर जब तुम ही अपना ना हो सके तो  परायों से क्या गिला-शिक़वा करूँ मेरा दिल इंतज़ार करता है तेरा उस बन्द दरवाजे के पीछे जहाँ छोड़ गए तुम निर्मोही बन कर। श्रीमती मुक्ता सिंह रंकाराज 16/3/23