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प्रेम

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 नमस्कार🙏,जोहार🙏, खम्माघण्णी सा🙏 आज बहुत दिनों बाद मै ब्लॉग पे आई हूं।कुछ निजी कारणवश।औए जबतक शब्दों का ज़खीरा ना हो तो भावाभिव्यक्ति कैसे हो सकती है।आज एक मंच से एक शब्द मिला भाव को व्यक्त करने का "प्रेम"।पहले भी इसपे एक कविता प्रस्तुत कर चुकी हूं।आज फिर से शब्दों के सागर से कुछ मोतियाँ चुन उन्हें व्यक्त कर रही हूं।             "प्रेम" हमारी अधूरी प्रेम की सम्पूर्ण कहानी है हम मैं तुझमें और तुम मुझमे हो,कृष्ण-राधा हम दो शरीर एक आत्मा हैं कोई कृष्ण पुकारे,कोई पुकारे राधा-राधा रुकमणी भी प्रेम कर जताती है,अधिकार थोड़ा गुस्सा-जलन-ईर्ष्या कर सताती हमें पर कृष्ण-राधा का प्रेम देख पुलकित हैं नयन मीरा तो प्रेम कर बनी जोगन रोम-रोम पुकारे कृष्ण-कृष्ण ना है राधा से लाग ना है रुकमणी से जलन भक्ति में सुध-बुध खो हुई मग्न श-शरीर जा मिली प्रियतम श्री कृष्ण से श्रीमती मुक्ता सिंह रंका राज 23/1/24

अस्तित्व की लड़ाई नारी की

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 *अस्तित्व की लड़ाई नारी की* अस्तित्व की लड़ाई क्या है  जाकर कभी उस स्त्री से पूछो जो किसी की माता है,तो है किसी की बेटी उस नारी से पूछो जो है किसी की है पत्नी,बहू हर सम्बन्ध में प्यार बदल जायेगा सम्मान बदल जायेगा परिवार का नज़रिया बदल जायेगा माता-बेटी है अपनी सम्मान और दिल का टुकड़ा पत्नी-बहू तो आई है दूसरे घर से उनसे घरवालों का बस है स्वार्थ का नाता अस्तित्व की लड़ाई क्या है  जाकर कभी उस स्त्री से पूछो जो कभी उन्मुक्त विचरती थी घर-आंगन में पत्नी-बहू की जिम्मेवारियों तले खुलकर बोलने का भी अधिकार जाता रहा बिरले ही घर हैं ऐसे जहां  पत्नी-बहू लक्ष्मी बन है इतराती उसके बिना घर की खुशियां लगती है अधूरी अस्तित्व की लड़ाई क्या है  जाकर कभी उस स्त्री से पूछो श्रीमती मुक्ता सिंह रंकाराज 30/7/23

दिव्यता का सफर

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 *दिव्यता का सफर* दिए की लॉ में भी न थी इतनी रौशनी जो रौशन कर सके तेरे दर्प को वो भी उधार मांग रही हो जैसे तुझसे दिव्यता प्रकाश की दिव्य आभा लिये दिव्यता के सफर पे चली गयी तुम छोड़ गई अपनी माँ को यादों के अंधेरे में देहरी खड़ी दिल-ही-दिल पुकारती हूं तेरे दिव्यता की रौशनी की झलक ढूंढती हूं काश समय चक्र उल्टा घूम जाता समेट लेती बांहों में,छुपा लेती अंकों मे चट्टान बन जाती तेरी दिव्यता के सफर में श्रीमती मुक्ता सिंह रंकाराज 24/6/23

नींद और ख्वाब के दरमियाँ

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 *नींद और ख्वाब के दरमियाँ नींद और ख्वाब के दरमियाँ बस तेरे-मेरे अफ़साने हैं याद इतने आते हो कि,तारे गिनते कब सहर हुई पता न चला और ख्वाबों में जो तुम आये रात बैरी बन सुबह में बदल गयी नींद और ख्वाब के दरमियाँ बस तेरे-मेरे अफ़साने हैं इंतजार में नींद रूठी रही हम मनाते रहे, और मेरे ख्वाबों पे तो तेरा ही हुकूमत है नींद और ख्वाब के दरमियाँ बस तेरे-मेरे अफ़साने हैं चाँद भी लुकछुप अठखेली करता नज़र रखता है हमारी वेचैनियों पे नींद तो सौतन बन ही बैठी है ख्वाब भी आंखे दिखाता है। श्रीमती मुक्ता सिंह रंकाराज 11/6/23  

एक बार आजा

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 *एक बार आजा* संतप्त ह्रदय तेरे विरह वेदना में जल रहा चंचल नयन तेरे इंतज़ार में सुप्त हो रहा तुम निर्मोही इस कदर रूठे कि मनाने की सारे रास्ते बंद कर गए लोग कहते हैं ना देखूं तेरा रास्ता तुम अनजाने रास्तों में खो गए  पर मेरे ह्रदय को कैसे समझाऊं,जो हर पल धड़कता तेरे आने की आस लिए दुनिया मे कई चमत्कार हैं होते एक चमत्कार होता और हम-तुम साथ होते सपनो के पंख लगा ढूंढती हूं हरजगह  पर जाने तुम किस ओट में हो छुपे हुए एक बार आजा मुस्कराते हुए छुपा लुंगी,सबकी नजरों से बचाते हुए श्रीमती मुक्ता सिंह रंकाराज 22/3/23

छोड़ गए निर्मोही बनकर

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 छोड़ गए निर्मोही बनकर लोग समझते हैं  मैं सम्भल गयी हूं दुनियादारी में रम गयी हूं पर उन्हें क्या पता ये तो मेरे कर्तव्य पथ के बिखरे मोती हैं जिन्हें मैं पिरोती हूं  चेहरे पे झूठी मुस्कान लिए पर मेरा दिल आज भी ठहरा है उसी बन्द दरवाजे के पीछे जहां छोड़ गए तुम  निर्मोही बन कर। बहुत मनाती हूं दिल को समझाती हूं तेरा अक्स ढूंढती फिरती हूं प्यार लुटा बनाना चाहती हूं अपना पर जब तुम ही अपना ना हो सके तो  परायों से क्या गिला-शिक़वा करूँ मेरा दिल इंतज़ार करता है तेरा उस बन्द दरवाजे के पीछे जहाँ छोड़ गए तुम निर्मोही बन कर। श्रीमती मुक्ता सिंह रंकाराज 16/3/23