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Showing posts from December, 2017

गहने

   "गहने"                        हम सभी एक साथ दीवानखाने में बैठे हुए थे । और यूँही गपबाजी इधर-उधर की चल रही थी ।हंसी मज़ाक का माहौल था,सभी एक दूसरे के टांग खिचाई कर रहे थे।और टेलीविज़न पे एक धारावाहिक "रिश्ते नए लिखेंगे "चल रही थी ।उसमे एक किरदार ने काफी गहने पहन रखे थे ।जिसे देख हम सभी मज़ाक के मूड में थे। सभी अपने अपने विचार व्यक्त कर रहे थे ।इतने में ही हमारे पतिदेव बोल उठे की इन आधी आबादी को अगर गहने के नाम पे सोने की ईंट भी लेटेस्ट फैशन कह कर दे दिया जाये तो वे ख़ुशी से फूली नहीं समायेंगी।और पहन कर काफी खुश होंगी।                  अब भला मेरे सामने आधी आबादी को निशाने पे लिया जा रहा था और मै बिना जवाब दिए या बिना अपना पक्ष रखे चुप भी नहीं रह सकती थी।मै बोली बिलकुल सही कहा आपने। पर क्या उसके पीछे की छुपी भावना को जानने की कोशिश की है आपलोगों ने कि, क्यों खुश हो जाती हैं महिलाएं गहनो के नाम पे। दरअसल इसके पीछे भी उनकी परिवार के प्रति चिन्ता और सुख की ही कामना होती है। अब चौकने की बारी उन सभी की थी।सभी ने मज़ाक भरे लहजे में मुझसे सवाल किया की कैसे ?              

पुटुस के फूल

                      "पुटुस के फूल"              आज रास्ते में झाड़ियों के बिच छोटे-छोटे गुछों के रूप में खिले फूल को देख बचपन की यादें ताज़ा हो गई।झारखण्ड में पुटुस के फूल बहुतायत रूप से मिलते हैं ।यहाँ के लोग पुटुस की झाड़ियों को अपने खेत के चाहरदिवारी के रूप में लगाते हैं । और उसपे जो रंग बिरंगे फूल खिलते हैं वो बच्चों को  बहुत भाते हैं। पर शायद अब के बच्चों को न भाये।            हमारे समय में टेलीविज़न पे इतने चैनल नहीं आते थे,न ही इतने कार्टून देखने को मिलते थे।और फ़ोन था भी तो भाया मीडिया वाला ।तो हम सभी को अपने को बिज़ी रखने के लिए आउटडोर और इनडोर गेम रियल में खेलने होते थे।चाहे वह लूडो हो सांप- सीढ़ी हो, कैरमबोर्ड ,व्यापारी , क्रिकेट, गिल्ली -डंडा, बैडमिंटन, पेंटिंग कम्पटीशन,गुलदस्ता बनाना, रंगोली बनाना ।इनके अलावे भी बहुत सारे खेल होते थे जिससे हमारा विकाश ही होता था।उसमे गुलदस्ता बनाना और रंगोली बनाने में हम पुटुस के फूल का बहुत उपयोग करते थे।                   पुटुस का गुछों के रूप में रंग बिरंगे फूल को तोड़ने में उसके डंठल के काँटों से भी दो चार होना पड़ता था। पर स

पथरीली पगडंडियों पे

"पथरीली पगडंडियों पे" ज़िन्दगी के इन पथरीली पगडंडियों पे, मिले राह में कई राही, अपने में मग्न, हर जगह थी बस समस्याएं खड़ी , हर राही था अपने में मग्न,बस अपने में मग्न। धुप -छाँव सी खेल रही थी ,सुख-दुःख पथिक, कर्मयोगी बढ़ रहा था बेखबर,अपने मंजिल, राहे रोक रही थी,अंधड़-तूफान और साजिशें, इन राहगीरों से बेख़बर ,बढ़ रहा था कर्मयोगी। अथक परिश्रम के बाद जीत खड़ी थी मुस्कराती, राहे बिछाए , व्याकुल नयन से ढूंढ रही थी मंजिल, पथरीली राहे अब बनने लगी थी समतल, क्षणभंगुर थे अंधड़-तूफान,दम तोड़ रहे थे साजिशें, कर्मयोगी के आगे सभी समस्याएं थीं हारी, सफलता खड़ी थी पलक पावड़े बिछाये ।              ........📝श्रीमती मुक्ता सिंह

जरा कदम तो बढ़ाओ

"जरा कदम तो बढ़ाओ" जिंदगी की सफ़र में न जाने कितने पड़ाव आये, न जाने कितने कारवां गुजरते गए, हम वही थे , और वहीँ ठहरे ही रह गए, लाखों तूफां आये ज़िन्दगी  की सफ़र में, खुशियाँ ठहर गई ,और तूफां गुजरते गए । हमारी मंजिल थी सिर्फ रिश्तों की अहमियत, मंजिलों के बिच कितने ही तूफां में थी कश्तियाँ, नाविक मिलते गए और किनारे पास आते गए । जिंदगी की सफ़र मे ख्यालों में ना समय गवाओं मंजिल मिलेगी ,तुम जरा कदम तो बढ़ाओ, ये धरती -गगन सभी हैं तुम्हारे हौसले के सहारे, तूफां यूँ ही गुजर जायेंगे,मंजिले पास आती जाएँगी, परेशानियों को भूल,तुम जरा तो मुस्कराओ , ज़िन्दगी होगी आसां,तुम जरा कदम तो बढ़ाओ।          ........📝श्रीमती मुक्ता सिंह

बेर और बचपन

  "बेर और बचपन" "आजकल पेड पर लदे बेर खुद ही मजबूरी में नीचे गिरने लगे हैं .. क्योंकि बेर को भी पता है पत्थर मारने वाला बचपन अब मोबाईल में व्यस्त है".....          यह उक्ति आज एक मैसेज ग्रुप में पढ़ी तो सहसा मुझे अपने बचपन की वह बात याद आ गई ।हमारे बगीचे में आम के तरह -तरह के किस्म के पेड़ ,अनार के पेड़, अमरुद के बहुत अच्छे-अच्छे किस्म के पेड़ , केला के और बेर के आठ -दस पेड़ थे।उनमे मुझे एक बेर के पेड़ का बेर बहुत अच्छा लगता था क्योंकि उसके स्वाद बिलकुल ही अलग था और एक लाल अमरुद के पेड़ का अमरुद ,जो की कच्चे फल में ही बहुत मीठा लगता था।      मेरे पापा जी का आदेश था कि उस पेड़ के फल को सिर्फ मै खाऊँगी या जिसको मेरी मर्जी होगी उसी को दूंगी। मुझसे बिना पूछे कोई नही ले सकता था ।मै स्कूल से आते ही पहले बगीचे जाकर उन फलों को तोड़वाती और खाती, उसके बाद ही कुछ करती । एक दिन उन फलों को तोड़ने वाला कोई नहीं था, और मुझे बेर खाने का बहुत मन हो रहा था। मै सोची की आज मै ही पत्थर चला कर बेर तोड़ लेती हूँ ।और मैंने ढेर सारा छोटा -छोटा कंकड़ इकठ्ठा किया और बेर तोड़ने का प्रयास करने

पतंग के दीवाने और चाचा जी

    "पतंग के दीवाने और चाचा जी"       हमारे भारत में बच्चों के खेल में से एक पसंदीदा खेल पतंग का भी है ।और इसे मान्यता भी प्राप्त है की संक्रान्त के दिन पतंग जरूर उड़ाया जायेगा । पतंग का खेल सिर्फ बच्चों को ही नहीं भाता बड़े भी बड़े चाव से इसे उड़ाते हैं ,और जब किसी का पतंग काटते हैं तो ऐसे विजयी मुस्कान देते हैं कि, जैसे भारत और पाकिस्तान या भारत और चाइना का जंग जीत लिए हों।               इस पतंग के खेल में दांव पे प्रतिष्ठा के साथ -साथ कई बार बाज़ी भी लगी होती है ।हमारे एक परिचित ने जो अपने अनुभव हमसे साझा किये उसे सुन कर हँस-हँस कर मेरे पेट में दर्द हो गए ।पर हंसी न रुकी ।                 मेरी एक न्यूज चैनल की दोस्त है उसकी अभी एक साल पहले ही शादी हुई है ।उसके पतिदेव प्रेम जी बिलकुल अपनी नाम की तरह ही हैं हंसमुख ।उनके चेहरे पे हमेशा मुस्कान बनी रहती है और वो जहाँ भी रहते हैं किसी भी गंभीर माहौल हो एकदम से बदल देते हैं ।और सामने वाले के चेहरे पे मुस्कराहट ले आते हैं। सबसे बड़ी बात है कि वो मेरी दोस्त का हर कदम पे साथ देते हैं , और उसके चेहरे पे कभी उदासी की परछाईं भी नहीं

टमाटर की चटनी

                       "टमाटर की चटनी"           आज जिओ चैट पे टमाटर की चटनी की रेसिपी देख  हॉस्टल की उन दिनों की याद ताज़ा हो गई । जब हम सभी हॉस्टल के खाने से ऊब गए थे और ठंढ का मौसम था ।कृष्णा भैया हॉस्टल के इतने अच्छे मेनू को भी अपनी कामचोरी के कारन बिगाड़ दिए थे ।सब्जी में कोई स्वाद ही नही रहती थी ।हमारे घर से भी लाये सारे नाश्ते धीरे धीरे ख़त्म हो रहे थे।               हम सभी छः दोस्तों का ग्रुप था । सभी के विषय अलग -अलग थे पर सेमेस्टर और रूम एक ही थे ।हमे वार्डन अलग भी रखना चाहती तो हम अलग अलग बेड की सुविधा छोड़ कर तीन बेड एक साथ मिलाकर छः दोस्त एक साथ रह लेते थे ।इतना अगाध हमलोगों में अपनापन और प्रेम था ।इसीलिए हमलोग हॉस्टल में सुपर सिक्स के नाम से मशहूर हो गए थे ।           हम सभी दोस्तों ने सोचा की अब क्या किया जाये । ये कृष्णा भैया के भरोसे तो हम भूखे ही रह जायेंगे ।और हमारा घर से लाया सामान भी खत्म हो रहा है ।तभी गली  में सब्जी बेचने वाले ने आवाज लगाई सब्जी ले लो सब्जी, ताज़े खेत से लाई हुई सब्जी ।टमाटर, बैगन ,आलू ले लो ।यह सुनते ही हम सभी के आँखों में चमक आ गई , क

ज़िन्दगी के कई रंग

      "ज़िन्दगी के कई रंग" ज़िन्दगी के होते हैं रंग कई, कुछ सफेद, कुछ रंगीन,कुछ गमगीन, इन्ही रंगो से बना हमारा जीवन सतरंगी । सात सुरों सा है हमारा जीवन, नदियों सी हैं रास्ते,समतल या उथल, मौसम सी आती हैं,गम और खुशियाँ, ज़िन्दगी के होते हैं कई रंग ।            ........📝श्रीमती मुक्ता सिंह

स्वाभिमान और चाटुकारिता

"स्वाभिमान और चाटुकारिता" लोभपरस्ती को इस दुनिया में,स्वाभिमान विकता है, गैरों के उपकार तले,स्वाभिमान अभिमान बनता है, स्वार्थसिद्धि की बाजार में चाटुकारों का बोलबाला है, झूठी शान बढाने को लोग गदहे को बाप बनाते है। सम्मानों के उच्च मंच पर,स्वाभिमान चाटुकार बनता है, लालच के खूंटी पे , स्वाभिमान को टँगते देखा है, अन्यायी के घातों से स्वाभिमान को कुचलते देखा है, आज पैसों से स्वाभिमान को लगती है बोली । स्वाभिमान की परिभाषाएं अब कागजों तक सिमित है, समाज कल्याण की भावना,सिमटी स्वार्थी गलियों में, राष्टप्रेम की परिभाषाएं,अब बानी दादी नानी की कहानियाँ, बच्चों को अब कंप्यूटर, सोशल मीडिया से फुरसत नहीं, कहाँ सीखेंगे पंचतंत्र की कहानियों से स्वाभिमानी बनना, धन्य है वो ,जिसने स्वाभिमान का न किया सौदा, गैरों के उपकार के बदले धिक्कार समझा जीवन को, परिस्थितियां न आडे आई स्वाभिमान के इरादे, मान सम्मान की गरिमा, आती है स्वाभिमान से, चाटुकारिता के छप्पन भोग से भली है, स्वाभिमान की सुखी रोटी हे मानस स्वाभिमान के बिना जीवन पे धिक्कार है।              .........📝श्रीमती

पवित्रा की मौत का जिम्मेवार कौन?

        "पवित्रा की मौत का जिम्मेवार कौन?"           सहसा टेलीविजन पे न्यूज देखने के लिए रिमोट दबाया तो उस न्यूज को सुन एक पल को दिल थम सा गया । पवित्रा ने खुद को गोली मार कर आत्महत्या कर ली है । संदेह के आधार पे पति और सास -ससुर को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है ।            पवित्रा बिलकुल अपने नाम की तरह सुन्दर सुशील और घर के कामों में दक्ष होने के साथ पढ़ी-लिखी भी थी ।उसके लिए रिश्ते खोजने नहीं जाने पड़े थे कई लड़के वालों ने रिश्ता खुद ही भिजवाया था ।अभी दो साल पहले ही तो पवित्रा की शादी हुई थी बड़े धूम-धाम से ।एक छोटा सा बेटा भी था गोलू-मोलू सा बहुत प्यारा, बिलकुल अपनी माँ की तरह । अभी पिछले महीने ही तो मै मिली थी उससे ।थोडा अजीब लगा था की अभी 1 साल का भी बेटा नहीं  होगा और उसके ससुराल वाले उसके बेटा को उसके साथ नहीं आने दिए थे ।मैंने पूछा भी तो वो बात टाल गई तो मै भी ज्यादा कुरेदना ठीक नहीं समझा। बाद में उसके रिश्तेदारों से पत्ता चला की उसका पति का किसी और लड़की के चक्कर में पड़ गया है,और उसी से शादी करना चाहता है ।पवित्रा पे एक दो बार जानलेवा हमला भी इसी कारन हुआ था ।इसील

न याद करूँ

"न याद करूँ" भरी महफ़िल में हम अकेले थे, बहुत कोशिश किये की ना याद करूँ, पर भूलते तब तो तुम्हे न याद करते। चारो ओर थी संगीत की महफ़िल, हो रहा था सुर और ताल का संगम, पतझड़ भी बसंत लग रहा था, कोशिशे तो बहुत की न याद करने की, पर जख़्म और गहरा हो गया । क्या दिन थे वो भी जब हम साथ थे, क्या दिन है ये जब हम यादों में हैं, फिर आएगा वो दिन जब हम साथ होंगे।               .............📝श्रीमती मुक्ता सिंह

सीनियर बबीता जी

             *सीनियर बबीता जी*           आज फेसबुक पे अपने सीनियर बबीता जी की आत्मविश्वास से भरी तस्वीर देख सहसा मुझे उस दिन मास कॉम डिपार्टमेंट की वो मुलाकात याद आ गई। उस दिन बड़े दिनों बाद बबीता जी को डिपार्टमेंट में देख मुझे जहाँ एक ओर ख़ुशी हो रही थी, वहीं उनका बुझा हुआ चेहरा देख आश्चर्य भी हो रहा था । क्योंकि इन्हे पुरा डिपार्टमेंट एक जिंदादिल की छवि में पहचानता था।ऊपर से ये नई नवेली दुल्हन थी ,जिनकी शादी कुछ महीने पहले ही हुई थी। जहाँ एक ओर नई नवेली दुल्हन का चेहरा नया संसार बसाने की उमंग और नया नीड़ गढ़ने की खुशियों से लबरेज रहता है , वहीँ पर उनके चेहरे पे उसकी नाममात्र की भी ख़ुशी दिख नहीं रही थी ।                         मै इसी उहापोह में थी की इनकी उदासी का कारन पूछूँ या न पूछूँ ? फिर भी हिम्मत कर शिकायत भरे लहजे में मै बोली क्यों बबीता जी आपने शादी में मुझे निमंत्रण भी नहीं दिया ।              भले ही वो मेरी सीनियर थी क्लास में पर उम्र में मै बड़ी थी इसलिए बबीता जी मेरा काफी रिस्पेक्ट करती थी ।शादी की बात करते ही न चाहते हुए भी उनकी आँखे भर आई। और आंसू की बुँदे प्यार की बो

"माँ का हक़ बेटे पे"

  "माँ का हक़ बेटे पे" "नारी! तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास-रजत-नग पगतल में। पीयूष-स्रोत-सी बहा करो जीवन के सुंदर समतल में।"          'जयशंकर प्रसाद' जी ने 'लज्जा' के दूसरे सर्ग मे इन पंक्तियों का उल्लेख कर औरत को इन शब्दों में व्यक्त करने का प्रयास किया है।                  आज भी एक नारी से सिर्फ इन्ही शब्दों के अनुरूप व्यव्हार की आशा की जाती है ।पर क्या उस औरत के दिल की भी बात को ये दुर्गा ,काली , मातृभूमि को भारत माता के रूप में पूजने वाले जानने का  प्रयास  करते हैं कभी ?           एक नारी जो अपना सम्पूर्ण जीवन सिर्फ दूसरों की खुशियों के लिए बलिदान कर देती है, मायके में बेटी और बहन के रूप में । ससुराल में बहु, पत्नी और माता के रूप में ।            मेरी एक परिचिता हैं, अभी हाल में ही उनके पति की मृत्यु एक एक्सिडेंट में हो गयी है।उसके बाद तो उनका जीवन ही बदल गया। जो अपने घर की मालकिन थी आज घर में बोझ बन गयी हैं । उनके बेटे इस 20वीं सदी में होकर भी कहते हैं की पति की मृत्यु के बाद उनको सारा सांसारिक जीवन त्याग देना चाहिए, पर घर का काम करना

समाज का मुखोटा

           "समाज का मुखोटा" लोग कहते हैं,ज़िन्दगी के मायने बदल गए हैं, पर मै कहती हूँ मायने नहीं, बस मुखोटा बदल गया है, सदियों पुराने मायने, आज भी वहीँ के वहीँ हैं। पहले भी राम गए बनवास ,और दानव किये राज, आज भी राम को मिलता है बनवास,राक्षसों को राज, पहले भी हरित हुई थीं माता सीता, आज भी दमणियां चढ़ती हैं बलि समाज में । न कल बदला था समाज,न आज बदलेगा, बस बदल गया है, मुखोटा समाज का।            .........📝श्रीमती मुक्ता सिंह

महफ़िल में अकेले"

       "महफ़िल में अकेले" भरी महफ़िल में हम अकेले थे, बहुत कोशिश किये की ना याद करूँ, पर भूलते तब तो तुम्हे न याद करते। चारो ओर थी संगीत की महफ़िल, बहारों की खुशबु थी भरी, सज का धुन मन के तार छेड़ रही थी, खुशियों का छलक रहा था पैमाना, फिर भी महफ़िल में थे अकेले हम। मन में चल रहा था यादों का कारवां, ठहाकों से महफ़िल थी गुलज़ार, पर बिन तेरे महफ़िल में थे अकेले हम।

ज़िन्दगी एक इम्तहान

    "ज़िन्दगी एक इम्तहान" ज़िन्दगी हर लम्हा इम्तहान लेती है, गम और साज़िशों के भंवर में डुबोती है, पर हर लम्हा निर्णय होता है हमारा, भंवर में डूबना है या किनारे लग जाना है। पर अपने ऊपर इतना है विश्वास हमे, ज़िन्दगी का हर इम्तहान पास कर जाएंगे, कितनी भी हो गहरी साज़िशें नहीं घबराएंगे, हमारी कोशिशें देख साज़िशें भी हार मान लेगी, भंवर बढ़ता ही रहेगा, हम पार उतार जायेंगे ।            ..........📝श्रीमती मुक्ता सिंह

"बेटा-बेटी दोनो चिराग"

   "बेटा-बेटी दोनो चिराग" नन्ही सी कली ने मांगी इजाज़त मुझसे, क्या मै आऊँ धीरे से खुशियाँ बनकर ,  मेरे आने से बसंत झूमेंगे आँगन में तेरे, हैगी थोड़ी तुम्हे परेसानी मां तुम्हे, ताना मारेगी दुनिया तुम्हे और मुझे। दुनिया का न जाने ये है कैसा उसूल, बेटों को कहते हैं घर का चिराग, बेटियों को कहते हैं परायी अमानत, कैसा है ये दोहरा बर्ताव ? जबकि दोनों हैं एक दूसरे के पूरक, एक के बिना दूजा महत्वहीन। जाकर कोई उस मान से तो पूछो, क्या जननी ने अलग-अलग दर्द सहा है? ममता करती है क्या दोनों में भेद, मां का तो दूध दोनों ने ही  पिया सामान,  मां की आँचल में छुपे नहीं क्या दोनों समान, फिर एक चिराग, एक परायी अमानत कैसे ? आज हमारी बेटी दूसरे के घर जायेगी, तो कल हम भी तो किसी की बेटी लाएंगे, मेरी नजरों में दोनों हैं चिराग, दोनों से होगा सभी का घर रौशन, ईश्वर की है दोनों अनूठी रचना, फिर दोनों में हम क्यों करें भेद।            .......📝श्रीमती मुक्ता सिंह

पैसों का बोलबाला

              "पैसों का बोलबाला" दुनिया को बदलते देखा है, पैसों को सर चढ़ बोलते देखा है, पैसों से तौली जाती है रिश्तेदारी, पैसों से ही है अहमियत सारी । पैसों ने आँखों पे बांधी ऐसी पट्टी, माता को भूले, पिता को भूले,भूले नातेदारी, बस हम दो हमारे दो में सिमटी दुनिया सारी। लिहाज भी लोग भूले पैसों के आगे, छोटा हो गया बड़ा, बड़ा हो गया छोटा, पैसों की अहम् है भैया सबसे भारी । पर कौन समझाए अक्ल के इन अंधों को, पैसों से नहीं मिलती खुशियाँ और नातेदारी, नहीं टिकते पैसों के चाटुकार ज़िन्दगी भर, रिश्ते की अहमियत टिकती उम्र सारी ।              ...........📝श्रीमती मुक्ता सिंह

"याद आता है गुजरा ज़माना"

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"याद आता है गुजरा ज़माना" बड़ा याद आता है वो गुजरा ज़माना, वो चाय की चुस्की,पालक मिर्ची का पकौड़ा, साइकल चला दस किलोमीटर आना, दोस्तों की वो महफ़िल, अधखुली सी वो खिड़की। जाड़े के दिनों में कई प्याले चाय की वो चुस्की, गर्मियों में खुल जाती थीं कोल्ड्रिंक को कई बोतलें, दोस्तों का वो ठहाका मार कर बेफिक्री की हंसी, राजनीती की वो बातें, अनगिनत सी योजनाये, और वो अधखुली खिड़की से किसी की झलक। क्या दिन थे वो भी मस्ती भरे, ना जिम्मेवारियों का था बोझ, न थी समस्यायों की गठरी, बस था  तो दोस्तों की महफ़िल, और सारे ज़माने की अनसुलझी सी बाते , और अधखुली खिड़की से झांकते दो नयन, बड़ा याद आता है वो गुजरा ज़माना । आज भी वो चायवाला रहता है वहीँ, वही चाय पकौड़े की खुशबु मनमोहति सी, पर न वो दोस्तों की ठहाकों की महफ़िल है, ना है वो अधखुली सी खिड़की, बहुत याद आता है वो गुजरा ज़माना।           ...........📝श्रीमती मुक्ता सिंह