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Showing posts from March, 2021

भोलेनाथ हमारे।ओम नमः शिवाय

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 *भोलेनाथ हमारे* हे पार्वती पति भोले भंडारी तेरी लीला तू ही जाने  ओ भांग,मृग चर्म कमंडल धारी मै बचपन से तेरी पुजारन न जाने योग तप पूजा के नियम बस जानू तो इतना जानू हे शिव-शम्भू तू है मेरा नाथ दिगम्बरधारी हे गौर वर्ण गौरा पति करुणावतारी आज है शिवरात्रि महापर्व अनोखा आज तूने दिया वरदान  पार्वती संग व्याह रचाये,दुनिया झूम रही सारी तीनो लोक में व्याप्त शिव-पार्वती प्रेम अनोखा बस इतनी अर्ज करे ये तेरी पुजारन अखण्ड सौभाग्यवती का दो वरदान हमारा भी दाम्पत्य हर कसौटी पे उतरे खरा सुख देना सौभाग्य देना  और देना अखण्ड भक्ति तिहारी हे भोलेनाथ, वासुकी, त्रिशूल, गंगधारी हे शंकर ,शिवाय,भोलेनाथ हमारे। ओम नमः शिवाय,ओम नमः शिवाय🙏। श्रीमती मुक्ता सिंह रंकाराज 11/3/21

नारी ही हो सकती

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 *एक नारी ही हो सकती* सब्र के नाव पे बैठी हौसलों की पतवार लिए वो और कोई नही एक नारी ही हो सकती हर मुश्किलों से लड़ जाए,छुईमुई सी खो जाए नाज़ुक फूलों की खुशबू सी  कांटों के बीच खुद रह दूसरों को महकाये वो और कोई नही एक नारी ही हो सकती दुनिया उसे समझे अबला,जो नवजीवन सृजन करती तानों के चुभन को चेहरे के हंसी में घोलती राक्षसों के नज़रों के चुभन को झेलती देश चलाती,भरी सभा मे विद्वता दिखाती हर ओहदे की गरिमा बनाये, शुशोभित है देश में अपनी पहचान बनाए वो और कोई नही एक नारी ही हो सकती चांद को छूती,सीमा पे दुश्मनों के छक्के छुड़ाती आज फाइटर भी उसके अधीन आ मुस्कराए जिस वेश को धरती,उसमे ही खो जाती भवानी,दुर्गा,सरस्वती,काली,लक्ष्मी  सब मे बसी हैं मां भवानी। श्रीमती मुक्ता सिंह रंकाराज 7/3/21

रिश्तों के मायने बदल गए

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 रिश्तों के मायने बदल गए देखो रिश्तों के मायने बदल गए मां का लाड़,प्यार से भरा डांट अब गरिमा की चुंदरी ओढ़े है लाडो से कब नाम पे आ गए देखो रिश्तों के मायने बदल गए वो प्यार अब कुछ पराया सा लगता है अल्हड़पन भी गरिमा के बंधन में है बंधा बहुत खुश होती हैं बेटियां मायके जाकर पर क्या अब वो अपनापन बसता है वहां देखो रिश्तों के मायने बदल गए बड़े प्यार से निहारती है अपने कमरे को जो अब किसी और के कहकहों से हैं गूंजते  बड़े अरमानो से सजाया था कभी इसको नम आंखों से ढूंढती हैं अपनी पुरानी यादें दीवारों,पर्दे सभी में ढूंढती है बेटी अपना रंग अब तो अपना कमरा भी मुंह चिढ़ाता है उनको थोड़ा आंगन में टहलती है अपने लगाए फूलों की खुशबुयों को ढूंढती है पर वो गुलाब का गुच्छा कब का मुरझा गया अब डालिया भी नही है कहीं,बस यादें हैं थोड़ा घूम आती हैं बगीचे में वो अमरूद,बेर, आम,लीची के पेड़ भी नही रहे मुंह चिढ़ाता है अब वो अल्हड़ बचपन  देखो रिश्तों के कितने मायने बदल गए। श्रीमती मुक्ता सिंह रंकाराज 4/5/21