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Showing posts from November, 2017

"अबला नहीं अब नारी"

   "अबला नहीं अब नारी" मैथलीशरण गुप्त जी की यह कविता- "अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आँचल में दूध, आँखों में पानी।" बहुत सरे मायने में अब भी सटीक बैठती है।पर अब जरुरत है बदलाव की, क्योंकि समाज भी अब आगे आने लगा है आधी आबादी के साथ।और मै कहती हूँ- अब अबला नहीं है नारी , ना ही है दया की पात्र, ना ही है पुरूषो की छाया मात्र, न ही है अब  किसी पर आश्रित। सक्षम है, शिक्षित है अब आधी आबादी, समाज को है अब उनपे पूरा विश्वाश, हर क्षेत्र में चल रही समाज के साथ, रावण बने नर अब तुम भय खाओ, क्योंकि समाज कृष्न बन दे रहा साथ। भरी सभा में अब न लूटेगी मर्यादा , न होगा सीताहरण, क्योंकि समाज कृष्ण बन दे रहा साथ, अब नहीं है नारी अबला, ना उपेक्षा की पात्र, जग रही नारी शक्ति, जग रहा समाज।                            ..........📝श्रीमती मुक्ता सिंह

मासूम सवाल

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     *मासूम सवाल* जब भी राजनीती की रोटी सिकती है सड़कों पे, आफत टूटती है सबसे ज्यादा बच्चों पे, बच्चे भूख- प्यास से रहते हैं बेहाल, और विकास की झूठी राजनीती करते हैं नेता, इनसे है मेरा बस एक ही सवाल ? क्या मैदान कम पड़ गए राजनीती के लिए, क्या सड़को पे होगा हंगामा,तभी होगा विकास, इनके पास न है कोई मुद्दा, फिर भी हैं सड़के घेरे। हंगामा करने वालो, एक नज़र तो डालो मासूमों पे, जब आप होंगे रजाइयों में दुबके,ऐसी में बैठे, उस समय ये मासूम निकले होंगे अपनी कर्मभूमि को, शायद नाश्ता भी न किया होगा ढंग से, मन में होगा बस एक ही डर, कहीं छूट न जाये बस, आठ घंटे बाद लौटे हैं ,अपनी खुशियाँ ढूंढने, माँ का आँचल,गर्म खाना, परिवार का प्यार पाने । पर आपको क्या इन सब बातों से, आपको तो करनी है अपनी राजनीती, मासूम रहे परेशान, आपको तो करना है जाम, सड़क पे होगा हंगामा, तभी आपको मिलेगी पहचान। इस ड्यूटी पे लगे प्रशाशन से करो जब सवाल, प्रशाशन मज़बूरी के नाम पे है पल्ला झाड़ती, कहती है हम हैं मजबूर वर्दी पे लगे अशोक स्तम्भ से। नन्ही सी आँखे,मासूम चेहरे पर है एक ही सवाल, क्या है हमारा कसूर इन

लोकतंत्र के शशक्तिकरण में युवाओं का योगदान

लोकतंत्र के शशक्तिकरण में युवाओं का योगदान 🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹          लोकतंत्र के शशक्तिकरण में युवाओं का बहुत ही योगदान हो सकता है । क्योंकि युवा शक्ति किसी भी देश और समाज की रीढ़ होती है, साथ ही यही युवाशक्ति चाहे तो देश और समाज को नए शिखर पर ले जा सकती है ।क्योंकि युवा देश के वर्तमान के साथ- साथ भूतकाल और भविष्य के सेतु भी हैं ।एक ओर जहाँ युवा देश और समाज के जीवन मूल्यों के प्रतीक हैं, तो वहीँ यही युवा गहन ऊर्जा और उच्च महत्वकांक्षाओं के साथ भविष्य के इंद्रधनुषी स्वप्न के अकांछी होते हैं ।किसी भी देश के समाज को बेहतर बनाने और राष्ट्र के निर्माण में सर्वाधिक योगदान युवाओं का ही होता है ।              संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत सबसे बड़ी युवा आबादी वाला देश है। यहाँ के लगभग 60 करोड़ लोग 25 से 30 वर्ष के हैं। यह स्थिति वर्ष 2045 तक बनी रहेगी। विश्व की लगभग आधी जनसंख्या 25 वर्ष से कम आयु की है । इसलिए हमारा देश भारत अपनी बड़ी युवा जनसंख्या के साथ देश को अर्थव्यवस्था की नई ऊंचाई पर ले जा सकता है । परंतु इस ओर भी ध्यान देना होगा कि आज देश की बड़ी जनसंख्या ब

सोने की पायल पाजेब

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      "सोने की पायल" सोने की पायल हाँ सोने पायल या पाजेब, बचपन से थी अंकित मानस पटल पर, जाने कहाँ देखी थी वो सुन्दर सी पायल, शायद कहीं पढ़ी हो किसी कहानियों में, या उपन्यास की नायिका की पैरों में खनकी हो, या देखा था शायद किसी फ़िल्मी नायिका के पैरों में। न जाने उसमे थी कैसी आकर्षण, वह सुनहला सा लिपटा पैरों में, उसकी घुँघरुओं की धुन गूंजती थी कानो में, ढेर सारी घुँघरुओं की छन-छन, उन घुँघरुओं की धुन में न जाने थी कैसी मिठास, जो कोयल से भी मीठी धुन घोलती थी कानो में। तभी किसी ने बताया की उसे तो कहते हैं पाजेब, पायल तो होती है पतली सी, तभी सहसा दिखी आजी की बक्से में, उसकी वो झलक थी कितनी मोहक, वो चौड़ी सी घुँघरुओं से भरी, छोटी-छोटी घुंघरू एक लय में थे गुंथे सारे, एक बार हवा में झनझोरने से बज उठे सारे, उसकी उस आवाज में न जाने थी क्या जादू। यह सोने की पाजेब मन को बड़ा लुभाता है, पिया के दिल को बांधती है इसकी छनक, इसकी एक छनक छेड़ जाती है मन के तार, जैसे बज रही हो सारे सरगमों की झंकार, यही पाजेब की आवाज बताती है पहचान, कि घूँघट में लिपटा आ रहा है कौन, पायल

ऐसे भी होते हैं औलाद

             "ऐसे भी होते हैं औलाद"            आज बहन के घर जाते हुए, उसके मोहल्ले में एक आलिशान भवन पे नज़र पड़ी। उसकी सुंदरता हम निहार ही रहे थे की बरामदे में एक बुजुर्ग की दयनीय हालात देख नज़र जैसे ठिठक सी गई।मै उनके बारे में ही सोचते हुए की वो कौन थे? बहन के घर दाखिल हुई।          अंदर जाकर मै बच्चों बड़ों से मिलकर बातों में भूल गई। और इधर-उधर की बातें होने लगी। इसी बातचीत के क्रम में उस मकान की भव्यता की भी चर्चा होने लगी। तभी मेरी बहन बोली क्या फायदा ऐसा आलिशान मकान बनवाने से ,जब मकान बनवाने वाले की हालात आज भिखारियों सी हो। मैंने पूछा उनकी ये हालात कैसे हो गई? तभी मेरी बहन बताने लगी की बेचारे वो बुजुर्ग सालभर पहले सीसीएल से रिटायर हुए हैं। उनका एक ही एकलौता बेटा-बहु और एक पोता है। अभी 6 महीने पहले ही धर्मपत्नी गुजर गई हैं। बेचारे ने बहुत चाव से घर बनवाया था रहने के लिए ,पर एक कमरा तो क्या एक चारपाई भी उन्हें नसीब नहीं है। पत्नी के गुजरने के बाद दूध लाना, सब्जी लाना , बच्चे को लाना और भी नोकरों वाले सारे काम ये ही करते हैं। और सोने को बस ये गलियारे के ज़मीन में बिछा गद

ज़िन्दगी में जूनून

       "ज़िन्दगी में जूनून" ज़िन्दगी में जरुरी है जूनून, जैसे मछली के लिए जल, जीवन के लिए साँस, कामयाबी के लिए प्रयास, सफलता के लिए आत्मविश्वास। परिवार के लिए रिश्ते, खुशियों के लिए विश्वास, दुखों से निबटने के लिए साहस, सब एक जूनून ही तो हैं । क्योंकि दोस्तों किसी ने सच ही कहा है- "यूँ ही नहीं मिलती राही को मंजिल, एक जूनून दिल में जगाना जरुरी होता है।" चिड़ियाँ से पूछो कैसे बनाया आशियाना ? भरनी पड़ती है उसे बार-बार उड़ान, तिनका-तिनका होता है उसे उठाना, तब बनता है उसका आशियाना। ये जूनून ही था थॉमस अल्वा एडिसन का, 1000 बार असफलता के बाद भी न मानी हार, इतनी असफलता के बाद किया बल्ब का आविष्कार।                   ............📝श्रीमती मुक्ता सिंह

"कुछ लोग"

                        "कुछ लोग" आज मार्केट में हॉस्टल वाली सीता दीदी को देख कर पुरानी यादें ताज़ा हो गई ।जब हॉस्टल में 1995 में एक साथ रहा करते थे हम। मै अपने घर से पहली बार हॉस्टल में आई थी तो थोड़ा डरी-डरी सी रहती थी। उस समय मेरी बैचमेट के अलावा गीता दीदी,सुनीता दीदी, प्रतिमा दीदी और सीता दीदी जो मेरी सिनीयर  थी हमेशा मुझे स्पोर्ट किया करती थी। सीता दीदी से थोडा ज्यादा लगाव हो गया था। उस समय एक बहुचर्चित फ़िल्म आई थी दीवानगी।जिसके चर्चे हर किसी के ज़बान पे थी। और 'पायलिया' गाने ने तो जैसे धूम मचा रखा था। दोस्तों के साथ फ़िल्म देखने का यह मेरा पहला मौका था।इसके लिए भी हमे कम पापड़ नहीं बेलने पड़े थे।क्योंकि उस समय मोबाइल का आविष्कार हुआ नहीं था,और फोन से बातें भय मिडिया के द्वारा होती थी।और मै बिना अपने पापा जी के अनुमति के फ़िल्म देखने जाना नहीं चाहती थी। खैर पापा जी से तो बात नहीं हो पाई पर माँ से इजाज़त मिल गई। क्योंकि फ़िल्म के लिए हमारे हॉस्टल की वार्डन ने खुद 20 छात्रों का टिकट बुक करवाया था। हम सभी फ़िल्म से ज्यादा इस बात से उत्साहित थे की हम सभी दोस्त एक साथ

फ़िजा को क्या हो गया है ?

फिज़ा को क्या हो गया है? आज ये फ़िजा को क्या हो गया है? जो कलियों की मुस्कान की थी वज़ह, आज ऊन कलियों की मुरझाने का सबब बन गयी है। भारत माता भी देखती होगीं , अपने कपूतों की करतूत,  रोती होंगी खून के आंसू मन-ही-मन, ना मिटनेवोले दर्द से कराहती होंगीं । आज मन में उठते हैं सवाल,  क्या यही सपना देखा होगा , आजादी के रखवालों ने? क्या इसी आजादी के लिए, शहीदों ने दिया होगा बलिदान? गैरों ने बेदर्दी से कलियों को कुचला तो क्या कुचला, अब तो अमन के रखवाले भी बन गए हैं अभिशाप, माता रूपी दुर्गा-काली को पूजनेवाले, बन बैठें हैं रावण, दुर्योधन, क्या अब देश में सुरक्षित रह पाएंगी मां-बहने? ये फ़िजा को क्या हो गया है ? धुंआ-धुंआ सा फैला है वतन में, दोस्तों के दिलों में भी है बेईमानी, अपना-पराया भूल गए हैं सभी, परिचित चेहरे हो गए हैं अपरिचित। चेहरे-पे-चेहरे हैं कई चेहरे, लगान का स्वरुप बदला, पीसी का हो गया है बोलबाला, जैसे किसी ने धोती छोड़ पहना हो जीन्स। स्कूलों में भी वार्षिक फीस का बढ़ा है चलन, बच्चे बलिदानों का इतिहास जाने या न जानें, पर अंग्रेजी के शब्दों पर हो मजबूत पक

ज़िन्दगी की जंग

                "ज़िन्दगी की जंग" दोस्तों की महफ़िल मिलती है खुशनशिबों को, दुश्मनो की जागीर मिलती है ज़हनसिबों को, तभी तो कमजोर दिल वाले नहीं लड़ पाते जंग। मै बैठी थी खुशियों की महफ़िल में, व्यस्त थी ज़िन्दगी की अठखेलियों में, तभी ज़िन्दगी की धुप-छांव में एक पल ठिठकी, एक ठोकर से लड़खड़ाए मेरे कदम, एक पल को हुआ मुझे एहसास , कि शायद हारने लगी हूँ ज़िन्दगी की जंग, यह एहसास मेरे होने लगे थे तंज़, विचलित सी दोराहे पे खड़ी थी, किंतव्यविमूढ़, कभी देखती थी बाएं, कभी देखती दायें, लोगों के दोहरे व्यव्हार से थी आहत, इस झुंझलाहट में ज़बान ने भी छोड़ा साथ, कर्कशा बन बैठा था ज़बान, सभी के नज़रों में उठने लगा था सवाल। तभी दिल के एक कोने से आई आवाज, दोराहे ही तय करते हैं मंजील की राह, तंज अहसास ही देते है सबल ताकत, विश्वास से तो दुश्मन भी बन जाते हैं दोस्त, क्योंकि ज़िन्दगी की जंग मिलती है सभी को, किसी को कम तो किसी को ज़्यादा, किसी ने सच ही कहा है- आग में तप कर सोना बनता है कुंदन।               ............📝श्रीमती मुक्ता सिंह

धरा ने किया है स्वर्णिम श्रृंगार

"धरा ने किया है स्वर्णिम श्रृंगार" आज हमारी धरा सजने लगी है, सोने की बालियों से किया है श्रृंगार, खूब कहा था-किसी ने , "भारत है सोने की चिड़ियाँ", वो लोकोक्ति आज सच होने को है। इस अगहन के सर्द गुनगुनाती धुपों में, सर्द गर्माहट से भरने लगी हैं बालियां, सुनहरी होती बालियों को देख, सजने लगे हैं किसानो के सुनहरे सपने। छायी है किसानों के चेहरे पे नवउल्लास, क्योंकि धरा सुनहली चादरों से ढकने लगी है, कोई महोत्सव से कम नहीं है यह उत्सव, किसानों को अपनी मंज़िल दिखने लगी है, सभी मदमस्त हैं अपनी तैयारियों में, कस्तूरी,श्याम-भोग,जिराफुल,सोनम, बादशाहभोग आदि सभी, फिजाओं में अपनी खुशबु बिखेरने लगी हैं, धरा सुगंध से चरों ओर होने लगी है पावन, माता अन्नपूर्णा की डोली अब उठने को है, खलिहान स्वागत करने को हैं आतुर, भंडारें भी बेसब्री से जोह रही हैं बाट, माता लक्ष्मी की पालकी अब आने को है, किसान बने हैं धरा के बाराती, गृहलक्ष्मियां स्वागत में सजा रहीं बंदनवार, माता ने सुनहरे दानों से किया है सोलह श्रृंगार, भंडारे भर गई माता अन्नपूर्णा के सुनहरे दानों से, किस

रानी लक्ष्मीबाई की आत्मा आज करती होगी अफ़शोस"

"रानी लक्ष्मीबाई की आत्मा आज करती होगी अफ़शोस" “खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी” सारे विश्व में मशहुर हमारी भारत माता की बेटी वीरांगना लक्ष्मीबाई। जो स्वराज्य की महल की नींव का पत्थर बनी । इनका जन्म 19 नबंबर 1835 में वराणसी के भदैनी नगर में हुआ था। लक्ष्मीबाई की माता का नाम भगीरथीबाई और पित्ता का नाम मोरोपंत तांबे था।लक्ष्मीबाई का बचपन का नाम मणिकर्णिका था, और पिता इन्हें प्यार से मनु बुलाते थे।       पत्नी की मृत्यु के पश्चात् मोरोपंत तांबे रानी लक्ष्मीबाई को लेकर बाजीराव के पास गए। जहां मनु की निर्भीकता को देखते हुए बाजीराव छबीली कह कर बुलाने लगे।लक्ष्मीबाई बचपन से ही निर्भीक और स्वाभिमानी थीं, और इन्होंने शास्त्र की शिक्षा के साथ-साथ शस्त्र की भी शिक्षा ली थी। रानी लक्ष्मीबाई का विवाह बालपन में ही 1842 ई. में मराठी शाषित राजा गंगाधर राव निलांबकर के साथ हो गयी थी। 1851 ई. में लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को भी जन्म दिया, लेकिन उनके पुत्र की मात्र चार माह की अल्पायु में ही मृत्यु हो गयी। जिसके बाद राजा गंगाधर राव की सलाह पर मनु ने 1853 में द

ज़िन्दगी क्या है ??

      *जिंदगी क्या है ??* कभी-कभी मन में मचलता है ये सवाल, जिंदगी क्या है ? ईश्वर का दिया अनमोल तोहफा, या है उलझनों से भरा समंदर , जिसका दूर-दूर तक नही है कोई किनारा , या बेजान टापू,जहाँ जीवन की कोई आस नहीं। ज़िन्दगी क्या है ? इस दुनिया में आने पे,ली पहली किलकारी, या माँ की प्यार की वो नर्माहट भरी गोद,  जो अपने आँचल में समेटे है दुनिया सारी, या बारिश की वो पहली फुहार जो देती है बीजों को नवअंकुरण या पतझड़ के बाद आया वसंत, जो किसानो को देता है नवजीवन । ज़िन्दगी क्या है ? तभी दूर मन के एक कोने से आई आवाज़ जिंदगी तो है एक कोरा कागज जैसा चाहो सजा लो। श्री गणेश होती है,पहली किलकारी से, रंगो की शुरुआत है,माँ के आँचल से, किताब बनती है,  जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों से, कहानियां बनती है, जीवन की घटनाओं से, कवितायें बनती है,हमारी खुशियों से, नाटक बनता है,अपनों की साजिशों से। और अलंकार, अलंकार सजते हैं दुःखों और खुशियों से चाहे प्यार का हो या नफरत का ।   .📝श्रीमती मुक्ता सिंह रंकाराज 19/9/2017 देखें - गरीब कौनhttp://mankebaatt.blogspot.in/2017/11/30-20-10-3-3-3-800-1000-25000-30000.html देखें - मह

*गरीब कौन?*

             "गरीब कौन " ओ भैया रिक्शावाले अपर बाजार चलोगे ? हाँ बहन जी चलूँगा, कितना लोगे ? 30रु बहन जी लूँगा, ज्यादा बोल रहे हैं भाई साहब, इतने में वह व्यंग्यात्मक लहजे में बोला क्या बहन जी आप लोग भी मोल भाव कर रहे हो, पर आप ज्यादा बोल रहे हैं भाई साहब, सही किराया तो 20रु ही होता है, पर अगले पल बारिश की वजह से अँधेरे की गहराई को नापते हुए बैठना ही ठीक समझी, और मन ही मन सोची की अगर जरुरी काम नहीं होता तो कभी न जाती, अभी रिक्शा कुछ दूर चला ही था की वह बोल उठा- क्या बहन जी महंगाई आसमान छु रही है, और आपलोग अभी उसी ज़माने में जी रहे हैं, मई तब से रिक्शा चला रहा हूँ, जब समोसा आठ आने में मिलते थे, अब तो वह भी 10रु में मिलते हैं । मैंने यूँ ही पूछ लिया कहाँ से हैं और कहाँ रहते हैं भईया ? उसने बड़े ही गर्व से बताया की जो नया मॉल गलेक्सिया खुला है न वहीँ रहता हूँ कई सालों से वैसे मै हूँ बिहार का। वह अपने रॉब में ही बोले जा रहा था की बेटा कहता है काम छोड़ने को पर  मई अपनी मेहनत पे भरोषा करता हूँ ।मैंने कहा वाह आपका बीटा तो बहुत अच्छा है क्या करता है ? उसपे उसने बोला टेम्पो चलता

"महारानी पद्मावती और चौथे स्तम्भ का कर्तव्य"

 "महारानी पद्मावती और चौथे स्तम्भ का कर्तव्य" शौर्य और बीरता से ओत-प्रोत हमारी देवी माँ पद्मावती आज एक तुच्छ मानसिकता वाले निर्देशक की धनलोलुपता और सस्ती मनोरंजन को परोसने की परिचलन की परिभाषा बन्ने को प्रस्तुत हैं , एक चित्रपट के रूप में । आज के ये निर्देशक माँ पद्मावती के समय के राघव से कम नहीं । जो अपनी ओछी मानसिकता के कारन परम पूजनीय हमारे सतीत्व के प्रतिक माँ पद्मावती को 16000 क्षत्राणियों के साथ जोहर करने को मजबूर कर दिया था । वैसे ही आज के समय में निर्देशक महोदय लीला भंसाली जी हमारे गौरव को अपनी धनलोलुपता के कारण तोड़-मडोड कर पेश कर रहे हैं और हम भारतीयों की मान-मर्यादा को ठेस पहुंच रहे हैं । आज तक जितनी भी ऐतिहासिक फ़िल्में बनी हैं, सभी में हमारे इतिहास को कलंकित दिखाया गया है ।चाहे वह जोधा-अकबर की कहानियां हों , या अभी कुछ महीनों पहले रिलीज हुई "बाजी राव मस्तानी" फ़िल्म हो ।क्या इसमे महारानी काशी बाई की महानता को नहीं दिखा सकते थे, या बाजी राव जी की वीरता को जो किसी भी युद्ध में नहीं हारे को प्रमुखता नहीं दे सकते थे ?    आज भी माँ पद्मावती के राज्य में उ

ज़िन्दगी एक अजीब उलझन है ?

          "ज़िन्दगी एक अजीब उलझन है" ज़िन्दगी भी एक अज़ीब सी उलझन है । जो मिल नहीं सकता, उसे पाने की चाहत,  और जो मिल गया, उसे और पाने की चाहत । इसी कशमकश में, उलझी रहती है जिंदगी , और हम भूल जाते हैं, सामने मिली ख्वाहिशों को , और, और पाने की चाहत में जुट जाते हैं सब। जो जिंदगी में सफल है, उसके लिए जिंदगी है छोटी । और जो असफल है, उसके लिए जिंदगी है बड़ी लंबी।                           .............📝श्रीमती मुक्ता सिंह http://mankebaatt.blogspot.in/2017/11/blog-post_13.html देखें- ज़िन्दगी http://mankebaatt.blogspot.in/2017/11/blog-post.html देखें - दिया हूँ मै http://mankebaatt.blogspot.in/2017/11/blog-post_12.html

गुलाब या गेहूं ?

                *गुलाब या गेहूं ?🌹* फूलों का राजा है गुलाब,खुद पर है इठलाता, क्योंकि हर जगह हैं, बस उसके चर्चे आम, भगवन से मन्नत मांगना हो तो बस गुलाब, विशिष्ट अतिथि का स्वागत करना हो तो गुलाब, शादी में मंगनी में बुके देना हो तो बस गुलाब, दोस्ती के लिए देना हो तो पिला गुलाब, शांति का सन्देश देना हो तो उजला गुलाब, अब तो विशेष दिन भी मिल गया है इसे "रोज डे"! आखिर क्यों नहीं अपने ऊपर इतराये गुलाब, क्योंकि दिन प्रतिदिन बढ़ रहे हैं चर्चे इसके, गुलदस्ते में लग जाये तो बढ़ जाती है उसकी शान, इसीलिए और फूलों पे है रॉब जमाता गुलाब, क्योंकि आज सभी की पसंद बन गया है गुलाब, पर क्या कोई इसे भी आइना दिखायेगा ? कि सिर्फ चर्चों से गरीबों के नहीं भरते हैं पेट, अमीरों के झूठे चोंचलें हैं ये सारे, गरीबों से तो पूछो उनकी पसंद है क्या, चुनने को उनसे कहा जाये कि "गेंहूँ या गुलाब"? तो मै शर्त के साथ कहती हूँ कि गरीबों की पसंद होगी बस "गेहूं " ना कि "गुलाब"                      ...........📝श्रीमती मुक्ता सिंह देखें -भारतवासी आपस में लड़ रहे

भारतवासी आपस में लड़ रहे

      * भारतवासी आपस में लड़ रहे* हम भारतवासी आपस में ही लड़ रहे हैं, अंग्रेजों  की  कुटनीति को खे रहे हैं... अरे लड़ना है तो देश के लिये लड़ो, जो सही है उसके साथ चलो... जो गलत है उसको निकाल बाहर करो, तभी तो हम भी कहलायेंगे  शहंशाह , दोस्तों इसी अहम् की लड़ाई में हमने खोया सारा खजाना, कोहिनुर का हीरा हो ,जो बना किसी के ताज का शोभा, और अरबों का खजाना जिसे लुट ले गये गोरे, और हमे दे गये स्लम बस्ती का “तगमा”... बदलना है तो  “सुचना तंत्र” को बदलो ... लड़नी है तो सुचना तंत्र की मजबूती के लिए लड़ो, “दरिद्र” से सूचना  “समृद्ध” बनो... ना कि आपस में एक-दुसरे पर कीचड़ उछालो... क्योंकि हमारी जमीं है बीरों की कर्मभूमी, जहाँ अवतरित हुुुुई लक्ष्मीबाई,कल्पना,सुनीता, बीर भगत सिंह,कपिल, आनंद, धौनी, विराट.... जिन्होनें गोरों को धूल चटाई... विदेशों में भी देश की परचम लहराई ।                        ........🎨श्रीमती मुक्ता सिंह

मासूम बचपन

मेरी यह रचना उनको समर्पित हैं।जो अपने कार्यानुभव को ही अपनी उपलब्धि बना लिए हैं।        *मासूम बचपन* मंदिर की सीढ़ियों पे मिला  जवाबदेही से लिपटा बचपन सड़कों के किनारे मिला जिम्मेवारियों को ढोता बचपन मैं रुकी सहसा ठिठकी,मन में उठे कई सवाल सहसा पूछ ही बैठी,स्कूल कब जाते हो ? जवाब मिला  स्कूल जाने से पेट नहीं भरता साहब ज़िन्दगी जीने की लड़ाई भी तो एक पाठशाला है। भले ही हम स्कूल नहीं जाते पर ज्ञान हमें भी तो कम नहीं ? न तो जीने के लिए हम दूसरों के सामने हैं हाथ फैलाते न ही घर में बैठ  पैदा करने वाले को हैं कोसते। हमने जब  सरकारी सुबिधाओं का दिया हवाला  तो मासूम बचपन  विश्वास से लबरेज हंसी में बोला, सरकारी सुबिधा ....हा हा हा वो हमे मिलती कहाँ है ? सरकारी सुबिधा तो कागजों पे ही बंट जाती है हम तक पहुँचने से पहले ही कहीं खो जाती है वो तो बस एक मृगमरीचिका है जो दूर से है लगती भली। वो तो बस भ्र्ष्टाचार का बढ़ावा है, जिसके बल पे  फल-फूल रहे सरकारी दफ्तर छुपती-छुपाती हम तक आ भी जाती है तो हमें भी लपेटे में लेकर निट्ठल्ला बना जाती है। सरकारी सुबिधा से भली हमारी मेहनत कम से कम संतोष का आन्नद तो दे जाती

दीया हूँ मै

आज मैं अपनी रचना के माध्यम से एक दीया की रौशनी की जुझारूपन,उसका स्वभिमान,और हौसले को प्रदर्शित करने का प्रयास की हूं।        *दीया* दीया हूँ मैं खुद जल दूसरों को करती रौशन मेरे चहूं ओर है अंधेरा-हवा रुपी दुश्मन न जाने किस ओर से आ जाएँ या आ जाएँ चारों ओर से और घेरे मुझे। पर मै भी टिकी ,अपने अडिग पथ पे लड़ूंगी, हारूँगी नहीं,जब तक है साँस जानती हूँ अंजाम अपना पर लड़ूंगी हारूँगी नहीं क्योंकि मै हारी तो,जीत जाएगा अंधेरा। मेरी हिम्मत बढ़ जाती है तब जब इस चकाचौन्ध में भी पूजा में मेरी ही जरूरत भाती है सबको। मुझे संतोष है इस बात से आज भी मेरी रौशनी में चहकते बच्चे, मुझे रौशन कर  लोगों के चेहरों पे छा जाती अलबेली मुस्कान। बिजली की लड़ियों में भी नही वह शक्ति, जो शक्ति है मेरी लरजती रौशनी में क्योंकि आज भी मंदिरों में मै ही जलती  गांवों के उन मिटटी के घरों में रौशनी मै ही देती आरती के थालों में भी मै ही हूं सजती । इन अहमियतों को याद कर बढ़ जाती मेरी मुस्कान हवा रूपी दुश्मन से लड़ने की शक्ति हो जाती दुगुनी। दीया हूँ मै दूसरों को रौशन करना मेरा काम । 📝श्रीमती मुक्ता सिंह रंका राज 12/11/17

ज़िन्दगी

Hello Hi नमस्ते जोहार खम्मा घणी 🙏☺ आज सिर्फ मै अपना परिचय दूंगी  श्रीमती मुक्ता सिंह W/O- युवराज गुलाब प्र. सिंह रंका एस्टेट गढ़वा पलामू झारखण्ड मन की बात में आप सभी का स्वागत है🙏..... मुझे उम्मीद है की मेरी "मन की बात " हम सभी की ज़िन्दगी की अनगिनत बिखरे हुए मोतियों में से चुने हुए कुछ मोती आप सभी को जरूर पसंद आएगी।🙏                  हमारी ज़िन्दगी में आस- पास कितनी सारी बातें बिखरीं पड़ीं है ज्ञान की, जिसे हम ग्रहण कर सकते हैं ।बस जरुरत है हमारे नजरिये की ।                   ।। ज़िन्दगी।।  "जिंदगी"  शब्द एक है, और अर्थ-अनर्थ हैं अनेक, जब हम खुश होते हैं तो, ज़िन्दगी सुहानी होती है, जब हम नाराज़ होते हैं, तो बोझ लगती है, जब अभाव में होते है, तो ऊब होती है, और जब विषम हो परिस्थिति तो, मौत बेहत्तर लगती है।                                                                        .....📝श्रीमती मुक्ता सिंह