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Showing posts from June, 2020

भुला ना सकेंगे तेरी शहादत

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"भुला न सकेंगे तेरी शहादत" भुला न सकेंगे हम गलवानघाटी के तेरे बलिदान को तेरे साथ हुए धोखे को । भुला न सकेंगे हम तेरी शहादत से मिली हिफाज़त को। वतन की खातिर शहादत करते तेरे अरमानों को। देश की खातिर मर मिटने के तेरे जज़्बातों को । तुम जब तिरंगे में लिपटे पहुंचे होगे अपने आंगन । नमन करने को उमड़ पड़ा होगा सारा वतन । तब तुम आसमां में भी बैठ कर रहे होगे वतन को नमन । फक्र है हमे तेरी बहादुरी पे और रोष है दुश्मनों की धोखाधड़ी पे । पर वो क्या जाने हमारे वीरों के हौसले को आज मन ही मन दुश्मन भी कर रहा होगा तेरी बहादुरी को नमन। भुला न सकेंगे हम गलवानघाटी के तेरे बलिदान को कई अरमान लिए तेरे शहादत को। उस गीली मेहंदी को जो अब रच रही तेरे बलिदानों से। उस मां के हौसलों को जिसने बड़ी आशीषों के साथ भेजा था तुझे सरहद की सुरक्षा को । उस पिता के हिम्मत को जिसने परिवार की जिम्मेवारियों से मुक्त कर भेजा था तुझे देश की सीमा की जिम्मेवारियां दे । उस बहन को जिसने तुझे राखी बांध कसम ली थी देश की सुरक्षा की । उस जन्मभूमि की मिट्टी को जिसके धरती पे जन्म लिए थे तुम जै

निशां छोड़ गए

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  नमस्कार,जोहार, खम्मागन्नी सा🙏 आज मैं अपने ब्लॉग की रचना में जिक्र की हूं, की जानेवाले तो चले जाते हैं।किंतु अपने पीछे कई सवाल छोड़ जाते हैं ।और दोस्तों की, रिश्तेदारों की, अपनों की, उनके राजदारों की भी उनसे कई सवाल होते हैं।कई अफशोस होते हैं ।जिसे मैं चित्रित करने का प्रयास की हूं।        "निशां छोड़ गए" तुम जाकर भी अपनी निशां छोड़ गए अपनी कहकहों में आंसुओं को पी गए थी इतनी ही चिंता तुम्हे अपनों की तो बीच मझधार में पतवार क्यों छोड़ गए। तुम जाकर भी अपनी निशां छोड़ गए कभी किसी से न की गीले-शिक़वे बस मुस्कराकर हर बात टाल दिए हम क्या जानते थे टालने के तो वो बहाने थे असल मे वो बात तुम दिल पे ले लिए। तुम जाकर भी अपनी निशां छोड़ गए अपनी जिंदादिली में व्याकुलता छुपा गए मासूम चेहरे के पीछे दर्द था कितना गहरा ये राज राजदारों से भी तुम छुपा गए। तुम जाकर भी अपनी निशां छोड़ गए आज समझ आयी तेरी बातों की गहराइयाँ जब तुम हँस कर कहते थे तो न समझा और तूने भी तो, मज़ाक था यार कह के हर बातों की गहराइयों को, टाला करते थे मज़ाक में कही बातें भी तुम सच कर गए। तुम जाकर भी अपनी

क्या खूब कहा है-आँसुयों को जगह आंखों में भी नहीं मिलती

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आज के बदलते परिवेश में जो रिश्तों के मायने रह गए हैं।उन्हें मैं अपने शब्द तूलिका से ढालने के प्रयास की हूं।🙏 आशा करती हूं कि आपसभी को पसंद आएगी। "क्या खूब कहा है"  गुलजार साहब ने भी क्या खूब कहा है- "हंसते रहोगे तो दुनिया साथ है वरना आंसुओं को तो जगह आंखों में भी नहीं मिलती।" दीवाने सभी हैं सफ़लतायों के गर्दिशों के तो सिर्फ मज़ाक उड़ाया करते हैं साथी हैं सभी खुशियों के गमों को तो सिर्फ दोस्त बांटा करते हैं। पर सुना है आजकल दोस्ती के भी मायने बदल गए हैं बदलते दौर में पैमाने बदल गए हैं हितैषी कम,उसके वेश में दुश्मन ज्यादा हो गए हैं, भौतिकता के इस दौर में निश्छलता, निश्वार्थ भावना कहीं खो सी गयी है। आधुनिकता के इस चलन में दुनिया की संगत ही बदल गयी है दोस्ती, और रिश्तों मे भी अब मतलबपरस्ती का डेरा है। जिधर देखो उधर ही अराजकता का बोलबाला है, संबंध हुए तार-तार, पैसों की तराज़ू पे बिक रहा ईमान, स्वाभिमान। गुलज़ार साहब ने भी क्या खूब कहा है। "आँसुयों को जगह तो आंखों में भी नही मिलती।' श्रीमती मुक्ता सिंह रंका राज 25/6/2020

जनाज़े पे अश्क के फूल चढ़ा देना

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आज मैं हर ओ शख्स के लिए ये नज़्म लिख रही हूं।जो अपनी असफलताओं से मायूस हो इस दुनिया को अलविदा कह जाते हैं।और ज़माने से अपनी ज़िन्दगी से बहुत कुछ पाना चाहते हैं।पर उन्हें ठोकरें मिलती हैं।तो जाते वक्त उनकी जो मनोदशा होती है, शिकायतें होती हैं।उसको वर्णन करने का छोटा सा प्रयास है मेरा।आशा करती हूं कि आप सभी को पसंद आएगी। और मेरी इस रचना में निराशा में जाते हुए भी एक आशा है,जो कि शीर्षक से ही पता चलता है।🙏 "जनाज़े पे अश्क के फूल चढ़ा देना' ये ज़िन्दगी आज तेरे कूचे से यूं रुसवा होकर चले हैं हम, कम से कम जनाजे पे दो अश्क तो बहा देना, और थोड़ा समय मिले मशरूफियत से, तो मेरी कब्र पे ,याद में मोहब्बत के दो फूल चढ़ा देना। बड़ी आशाओं से दामन थामा था मैंने कामयाबियों के, वक्त ने नज़ाकत क्या दिखाई सफलताओं ने भी मुंह मोड़ लिया जैसे, और ज़माने के तानों ने भी छेड़ दिया है अफ़साने रुसवाइयों के। सोचा था है बस कुछ दिनों का मेहमान तू मौसमों की तरह एक दिन वक्त के साथ निकल जायेगा तू, पर जमाने कि रुसवाइयों पे जैसे सवार बैठा था तू। लो आज तेरी ही विजय हो गई मैं तो हार गया, जंग लड़ते-लड़त

ख्वाबों के घेरे में

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  नमस्कार,जोहार, खम्मागन्नी सा,अभिनंदन 🙏 आज मैं उन प्रेमियों के दिलों की भावनाओं को व्यक्त करने की एक छोटी सी कोशिश की हूं।जो कर्तव्य पथ पे अग्रसर होने के लिए न चाहते हुए भी चलते हैं।ऐसे में एक प्रेमिका के उलाहना भरे शब्दों को चित्रित करने का प्रयास की हूं।और मुझे आशा है कि आपलोगों को पसंद आएगी। *ख्वाबों के घेरे में* अधूरे मोहब्बत के ख्वाबों के घेरे में तुम मुझे छोड़ जाते हो, साथ मिलता है बमुश्क़िलों से, कर्तव्यों के पथों पे हाथ छोड़े जाते हो, फिर जल्दी मिलूंगा का दिलासा दिए आशाओं के घेरे में छोड़े जाते हो । पर अब जिम्मेवारियों का घेरों का दायरा होने लगा है बड़ा, मंजिलों के सफ़र में अब तन्हाइयां बनने लगी हैं हमसफ़र तेरे, और हमसफ़र के सफ़र में विरह का लगने लगा है मेला । इस मेले के भीड़-भाड़ में चारों ओर तन्हाइयों का कुछ यूं पहरा है, जिधर देखूं बस उधर मुस्कराता दिखता है तेरा ही चेहरा , उस चेहरे को छूने की कोशिश, तेरे दूर जाने की अनुभूति है । अनुभूतियों का तो क्या कहना है अब, बिन बुलाए सैलाब से उमड़ते हैं, और अपनी वेग में हमें भी, तेरी यादों के समंदर में डुबो जाते हैं, तेरी यादो

मेरे पापा

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आज पापा जी आपकी बहुत याद आ रही है।आंखों से अश्रु की अविरल धारा रुकने से इनकार कर रही है।शायद उसे भी मेरे मनोभावों का पता है।तभी तो वह अडिग हो साथ दे रही है।आपका वो दुलार, प्यार और जादूगरी बहुत याद आ रही है।                   *मेरे पापा* क्यों छोड़ गए मुझे मझधार में इस मतलबी दुनिया के बीच अकेला आप तो जानते थे मैं घुट-घुट कर जिऊंगी आपके बिना, क्योंकि बिन नीव इमारतें गिर जाती हैं। न जाने कौन सा जादू जानते थे आप की बिन बोले जान जाते थे मेरी हर बात आप ही तो थे आदर्श मेरे बिन आदर्शों के क्या मूल्य है जीवन का। अजीब सी टेलीपैथी थी हमारी मैं याद करती और आप बिना संदेश आ जाते थे प्यार के दो मीठे बोल में अमृत घोल पिला जाते थे। फिर क्या हुआ ऐसा जो रूठ गए मुझसे बिन बोले, बिन पते के देश चले गए अब तो हर पता एक क्लिक पे खुल जाता है तो आप बिन पते के देश क्यों चले गए। अब कैसे बतायूँ हाल अपने दिल का अब तो टेलीपैथी भी काम नही करती अब कैसे बुलायूँ आपको कि एक बार फिर से आ जाइए पापा सीने से लगा मुझे, दुनिया से छुपा लीजिये सर पे, फिर से वही प्यार भरा हाथ फेर दीजिये और वही दो मीठ

अवसाद (डिप्रेशन)

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    दोस्तों आज मैं आप सभी के सामने अवसाद (डिप्रेशन)पे कुछ भावों को व्यक्त कर रही हूं।क्योंकि अवसाद वो शय है जो हर किसी के जीवन मे आता है कीसी ना किसी रूप में।मैं भी एक समय मे अवसाद  का स्वाद चख चुकी हूं, जब मेरे पापा जी की मृत्यु एक एक्सीडेंट में हो गयी थी।और उस समय मैं शहर में नही थी।वो मुझसे मिलने आये थे पर मै बाहर गयी हुई थी।जिस कारण उनसे मेरी अंतिम मुलाकात नही हो पाई थी।और मुझे लगता था कि काश मैं उस समय घर पे होती तो उन्हें जाने ना देती,जिससे शायद उनका काल टल जाता।हरवक्त बस उनके ही ख़यालों में खोई रहती थी ।पर धीरे धीरे अपनी माँ का दुख देखकर मैं संभलने लगी, जिसमे मेरे पतिदेव काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाय थे।मुझे अवसाद से बाहर लाने में।आज भी अकेली होती हूं तो लगता है जैसे पापा जी साथ हैं।बहुत सारे अवसरों पे उनकी कमी बहुत खलती है।🙏            "अवसाद" अवसाद हमारे जिंदगी के सफ़र में यूं हमसफ़र बन गुजरता है, ये हम सभी को, जीवन में कभी ना कभी हंसाता और रुलाता है । ये वो राही है जो दुनिया से दूर हमें नई राहों पे ले जाता है, जिन रास्तों की ना है कोई मंजिलें, इसके साए मे

बड़े अरमानों से

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   कुछ सपने जब बिखरते हैं यूं तो हाल बड़ा बुरा होता है।पर हर टूटने में ही हिम्मत भी होती है।बस ढूंढने की जरूरत है।       #बड़े अरमानों से#     बड़े अरमानों से आए थे तेरे कुच्चे में खुद तो आए थे ही दोस्तों को भी ले आए थे तेरे दर पे। अरमानों की महफिलें सजी थी तेरी गलियों में और खुशियों के फव्वारे उठ रहे थे तेरे देहरियों पे। सखियों से घिरी छुई मुई सी चल रही थी तुम ऎसे जैसे सितारों के तार सी छेड़ रही हो दिल के तमन्नाओं को। बड़ी मुश्किल से संभाला था मैंने दिल को जो बल्लियों उछल उछल बता रहा था हाले ए दिल सभी को। सारी रस्में भी हो रही थी,साथ मैं भी हो रहा था तेरा सात फेरों में सपने भी हजारों बुने थे मैंने उस हवन कुंड की अग्नियों से। और तुम्हे अपने सपनों की मल्लिका बना चला था नई दुनिया बसाने पर मै था हकीकत से दूर सुहाने सपनों के बुने अपने ही जाल में। सारी रस्में भी बनी थी गवाह हमारे गठबंधन की पर तूने एक लम्हे में मेरे दिल के अरमानों को इस कदर तोड़ा कि यमराज भी मुरीद हो गए तेरे इस अनदेखी कत्ल ए आम से। टूटे दिल को लिए फिर रहा हूं आज मारा मारा इस क़दर कि अपनी सिसकियों क

गलतफहमियों का फासला

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 ग़ज़ल लिखने का प्रयास कर रही हूं।उसी कड़ी में ये एक और प्रयास है।और आशा करती हूं कि आप सभी के हौसला अफजाई से एक दिन अच्छा ग़ज़ल लिखने लगुंगी । #ग़ज़ल#         *गलतफहमियों का फासला* हमारे दरमियान ये कैसे फासले हो गए गलतफहमियों का सैलाब येसा उमड़ा कि "हमतुम", "जमीं और आसमां" हो गए । बस तसव्वुर ये दिल है इतनी कि एक दिन कोई बादल बन आएगा और अपनी बूंदों से हमें एक कर जाएगा क्यूंकि सुना है आसमां भी बादलों पे सवार जमीं से मिलने आता है। उस एक क्षण के इंतज़ार में बाट जोहती रही जिंदगी पर अब तो इंतेहां हो गई तेरे वहम की तू ना आया पर आया तेरा फरमान है। लगता है कि अब बरसातें तो आएंगी, पर हमारा दामन सूखा ही रहेगा क्यूंकि हमारे चारो ओर तेरे दगा की दीवारें हैं। बस अब अंजुमन मुक्ता की आरज़ू है इतनी कि दोस्ती में अब कोई वहम ना पाले वर्ना हर दोस्त "जमीं और आसमां" बन जाएंगे खफा की दीवारें होंगी इतनी ऊंची कि "हम - तुम", "मैं और तुम", बन जाएंगे । श्रीमती मुक्ता सिंह रंका राज 11/6/2020

कुछ तो बात होगी

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    "कुछ तो बात होगी" कुछ तो बाते रहीं होंगी तेरे रूठने की मेरे मनाने की मेरे रूठने की तेरे मनाने की और "छोटी -छोटी" बातों पे यूंही चुपके से मुस्कराने की । माना साथ हमारा है, जन्मों जन्मों का पर हर वो पल उन जन्मों पे भारी है जब सिर्फ तुम मेरे साथ रहते हो क्यूंकि अगला जन्म किसने देखा है कुछ तो बात है "तेरे- मेरे" साथ में, यूंही नहीं। कुछ तो बात होगी "तेरे - मेरे" साथ की लोग यूंही "बाह - बाह" नहीं कहते डरती हूं जमाने के खामोश निगाहों से क्यूंकि वो खामोशियों तले खंजर छुपाए बैठे हैं। कुछ तो बात होगी हमारे "अफसाने" की लोग यूंही नहीं,"नज़ीर" देते हमारे प्यार की डरती हूं जमाने कि रुसवाइयों से वो अक्सर चांद में भी दाग ढूंढ़ लेते हैं । कुछ तो हिसाब होगी हमारे इश्क ए समन्दर की लोग यूंही नहीं आ जाते हैं, नापने गहराई हमारे मोहब्बत की कुछ तो बात होगी,लोग यूंही नहीं.....। श्रीमती मुक्ता सिंह रंका राज 10/6/2020

इश्क साहिल बन गया (ग़ज़ल)

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  आज पहली बार एक *ग़ज़ल* लिखने का प्रयास की हूं।और आशा करती हूं कि आलोगों को पसंद आएगी।जो भी भूल चूक हो माफ़ करेंगे🙏       *इश्क साहिल बन गया* दिल ए दर्द जब हद से गुजरा तो दवा बन गया जिंदगी में तूफ़ान इतने उठे की इश्क साहिल बन गया । मोहब्बत के समंदर में सुना है आजकल तूफ़ान उठा है इश्क की लहरें भी आजकल साहिल से  मिलने आती हैं और आकर साहिल से टकरा कर मायूस लौट जाती हैं। एक वक्त वो था कि इश्क की दर पे हम सजदा किया करते थे और वो बेपरवाही से हमारी हालत पे हमदर्दी जताया करते थे। आज हम इश्क की गलियों से थोड़े निर्मोही क्या हुए कि सुना है हुस्ने वफा इश्क की गलियों में अश्क ए फूल बिखेरते हैं और भूले से अगर कोई हमारा नाम क्या ले लेता है भीगी पलकों से इश्क के रंज ए सफ़र में तन्हाइयों से सर फोड़ लेते है । श्रीमती मुक्ता सिंह रंका राज 10/6/2020

सदियों का इंतज़ार

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 आज मैंने अपने ब्लॉग को एक पत्नी के इंतज़ार की मनोदशा को समर्पित किया है।जो कोई भी हो सकती है।एक सोल्जर कि पत्नी, एक विदेश में बसे की देश में इंतज़ार करती पत्नी, एक प्रवासी की पत्नी जिसका पति कई महीनों बाद घर लौट रहा हो।या वो जो पति - पत्नी दोनों रोजी रोटी के लिए अलग अलग शहर में रह रहे हों, कई दिनों बाद, कई महीनों बाद पति घर आ रहा हो।आशा है कि मै एक पत्नी की उस इंतज़ार की मनोदशा को चित्रित करने में खरी उतरी होऊं आप सभी के सामने।🙏      *सदियों का इंतज़ार" सदियों का इंतजार जब एक दिन में बदल जाता है, तो सदियां छोटी और एक दिन बड़ा हो जाता है, दिल की धड़कने तेज यूं हो जाती हैं, कि हरेक आहट पे नज़रें बस देहरी निहारती है , और लगता है जैसे ख्वाबों पे भी इंतज़ार का पहरा है एक खटके पे दिल बल्लियों उछल जाता है। सदियों का इंतजार जब एक दिन में बदल जाता है, तो सदियां छोटी और एक दिन बड़ा हो जाता है, सदियां तो काट ली मैंने दिन गिन - गिन कर, पर अब एक दिन पे, एक पल भी भारी हैं, काश कि तुम ये संदेशा ना भेजे होते, कि मै कल आ जाऊंगा सांझ ढलते - ढलते। सदियों का इंतजार जब एक दिन मे

यादों के भंवर से

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   *यादों के भंवर से* चलो आज यादों के भंवर से कुछ मुस्कराहट मांग लाते हैं । जब हमे ना थी दुनियादारी की समझ सब अपना और सभी अपने दिलों को लुभाते थे उस पल को मांग लाते हैं । चलो आज यादों के भंवर से कुछ मुस्कराहट मांग लाते हैं । और उन पलों के, ख्वाबों को सजाते हैं चलो एक बार फिर से उन अल्हड़ मस्तियों को ओढ़ आते हैं। चलो आज यादों के भंवर से कुछ मुस्कराहट मांग लाते हैं । कुछ तीखी कुछ नमकीन वो दोस्तों का रूठना- मनाना झूठी वो मनुहार भरी लड़ाई फिर से वो दोस्ताना ढूंढ़ लाते हैं। चलो आज यादों के भंवर से कुछ मुस्कराहट मांग लाते हैं । श्रीमती मुक्ता सिंह रंका राज 8/6/2020

थोड़े से सुख के लिए

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   *थोड़े से सुख के लिए* थोड़े से सुख के लिए क्या पाया, क्या गंवाया आज देख लो सड़कों को नापते इन लड़खड़ाते नंगे पैरों को जीवन की आस में मौत की ओर बढ़ते इस रेले को। थोड़े से सुख के लिए क्या पाया क्या गंवाया, क्षणिक सुख की मायाजाल में छोड़ आए थे ये रिश्तों की बगिया बड़े - बुजुर्गों की डांट भरी सीख और छोटों की वो अधिकार का लड़कपन बड़ी अच्छी लगती थी ये आधुनिकता सुख की तलाश में खो आए थे शान्ती। थोड़े से सुख के लिए क्या खोया, क्या पाया आज ये अपनी झूठी अभिलाषाओं की, चुका कीमत सोच रहे हैं इस झूठी शान से भली थी वो अमरैया जहां एक आह पे दौड़ पड़ते थे सभी भैया। थोड़े से सुख के लिए क्या खोया, क्या पाया गांव छूटा, छुट्टी वो सोंधी सी खुशबू छुट्टी वो दोस्तों की टोली और ना जाने क्या - क्या छूटा और क्या क्या टूटा इस अंधी दौड़ में। इस महामारी काल में जब आंखे खुली तो लूट चुके थे ये इस क्रूरता के आधुनिक बाज़ार में झूठे सपनों ने भी आंखे फेर ली थी तब याद आया इन्हे अपना वो गांव जहां नमक रोटी भली थी बड़बोले की इस झूठी कमाई से। थोड़े से सुख के लिए क्या खोया, क्या पाया ह

पर्यावरण की पुकार

   "पर्यावरण की पुकार* आज मै अहले सुबह बैठी थी खिड़की पे प्रकृति का वो मनमोहक रूप देख हो रही थी विमुग्ध वो बारिश की बूंदे जब हरे हरे पत्तों को छू रही थी उसकी वो सुमधुर आवाज धीरे से कानों में मिश्री सी घोल रही थी तभी जैसे आवाज आई ,कितने दिनों तक यूंही निहार पाओगे मुझे इन कंक्रीटों के मोह जाल में,सिमटते हुए मानवता से आज तो सिर्फ तरसते हो स्वच्छ पानी पीने  को कल तरसोगे स्वच्छ हवा में सांस लेने को , तब क्या सुन पाओगे मेरी पुकार । चारों ओर से कर रहे हो मुझसे विश्वासघात, मेरी छाया में बैठ, तुम करते उधेड़ बुन कितने मिलेंगे इस पेड़ के, पहले तो बनाते थे मुझसे काग़ज़, अब प्लास्टिक बना करते हो मुझे लहूलुहान, फिर भी हूं मै वसुंधरा माता तेरी। जरा सोचो। करो सुविचार,अपनी मानवता पे संकल्प करो आज फिर एक बार एक पेड़ को लगाएंगे हम अपने जीवन के इस विषम स्थिति में करेंगे सेवा उसकी येसे ,जैसे हो छोटी सी संतान हमारी । फिजूल ना काटेंगे और ना करेंगे प्लास्टिक इस्तेमाल। श्रीमती मुक्ता सिंह रंका राज 5/6/2020

मां थी अजन्मे बच्चे की

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    *मां थी अपने अजन्मे बच्चे की* मानवता कहां खो गई ? हो गए हम उस निरीह के सामने शर्मसार, क्या गलती थी उसकी, बस भूख ? जिसकी सजा दे दिया उसने, पढ़ा लिखा वो जाहिल ग्वार शास्त्रों में भी है गर्भवती अब्ध्य, फिर क्या वो मां ना थी तेरी नज़रों में ? इस महामारी काल में , मानवता दिख रहा सोशल मीडिया पर झोली भर भर कर, तब उस दरिंदे ने किया ये अमानवीय हरकत, वो तो एक मां थी अपने अजन्मे बच्चे की । भूख से हो रही थी बेहाल जंगलों से निकल पड़ी क्षुद्धा मिटाने को, बड़ी आशा से किया नगर प्रवेश, आज कुछ भी मिल जाए मेरे अजन्मे बच्चे को, सोच याचक बन फिर रही थी द्वार द्वार वो तो एक मां थी अपने अजन्मे बच्चे की । क्या कसूर था उस अनबोलती मां का, बस इतना ही ना कि, क्षुधा मिटाने को कर रही थी गुहार, उस आतताई ने मानवता दिखा किया मानवता को शर्मशार, पेट भरने को अन्नानास में दे दिया तोहफा पटाखे का, पेट की क्षुधा मिटाने को मुंह में फोड़ती निगल गए पटाखे वो मां, वो तो एक मां थी अपने अजन्मे बच्चे की । अपनी तकलीफों को झेलकर भी , जान बचाना चाहती थी अपने अजन्मे बच्चे की, वो भोली अनबोलती माता क्य