डर
"डर" जब भी जुबान पे मुस्कराहटों ने आहट दी, जमाने की तीखी नज़रों ने बिंध डाला खुशियों को, खुशियों की आने की आहट अभी सुनी ही थी हमने, कि गमों की आंधियों ने डेरा डाल दिया । कलियां भंवरों की गुनगुन से हुई ही थी प्रस्फुटित, कि आंधियों के थपेड़ों ने चमन ही उजाड़ डाला, कुदरत का ये कैसा बदला है मिजाज़, कि पतझड़ में बरसात का तूफ़ान आ गया, बहारे चमन में बवंडर का तांडव हो गया । अब बगिया को है इंतज़ार बहार का, पर मन के एक कोने में डर भी है समायी सी, कि कहीं बाहर के आने के पहले ही, चमन ना लूट जाए , बसंत हो जाए बेवफ़ा, साथी तूफ़ान ना बन जाए । श्रीमती मुक्ता सिंह रंकाराज 19/9/19